हाँ बात सिर्फ़ अपनों की। जो मेरे अपने हैं... अब आप कहेंगे ये अपने कहीं आपके रिश्तेदार तो नही? रिश्तेदार कहें तो रिश्ता मेरा उन सभी से है जिन्हें दिल मानता है अपना। किसी भी रिश्ते पर बात करने से पहले मै बात करूँगी मेरे पिता की।
मै अपने माता-पिता, भाई बहनों के साथ एक खूबसूरत शहर पिलानी में रहती थी। अब इसे शहर कहें या कस्बा पिलानी जो पहले दलेल गढ़ के नाम से जानी जाती थी। सचमुच मेरी जन्म भूमि भी मेरी माँ की तरह बहुत खूबसूरत लगती है।
मेरे पिता एक बहुत ही सुलझे हुए संवेदनशील व्यक्तित्व के इंसान हैं। वो मुझे चालीस साल से जानते हैं लेकिन मै उन्हें तब से जानती हूँ जब मै चार साल की थी। इसके पूर्व का मुझे याद नही। मुझे याद है जब मेरे पिता देख सकते थे। मेरा हाथ पकड़ कनॉट प्लेस मोती हलवाई की दुकान पर जाते थे जहाँ मुझे रसमलाई खाने को मिलती थी। समोसे से मुह जल जाने का डर था वो बस माँ और बहन के लिये पैक करवा कर लाया जाता था। बस वही कुछ साल याद हैं जब पिता मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाते थे। और मै उछलती-कूदती उनके साथ तितली सी उड़ती चलती जाती थी।
एक दिन ऎसा भी आया जब एक हादसे में मेरे पिता की दोनो आँखें चली गई। साथ ही चली गई मेरी माँ की वो खूबसूरती जो हम हर पल पिता की आँखों में देखा करते थे। तितली सी अब मै उड़ना भी भूल गई थी। कितना मुश्किल था वो समय अब मुझे उबड़-खाबड़ रास्तों से सम्भाल कर पिता को मोती हलवाई के ले जाना पड़ता था। वो पिता का पुराना दोस्त था समोसा कुछ सस्ता हो गया था लेकिन अब मुझे रसमलाई पसंद नही थी। रमेशपान वाला भी बहुत अच्छा पान बनाता था। एक छोटा सा गुलकंद वाला पान मुझे भी मिलता था। अब भी मै चलती थी पिता के साथ कनॉट प्लेस मगर उड़ नही पाती थी। मुझे लगता था मै बहुत बड़ी हो गई हूँ।
ऎसे हालात में पिता ने हार नही मानी माऊँट आबू से पढ़ाई कर ब्लाईंड बच्चों को ब्रेल लिपि सिखाने का काम शुरू किया। जब उससे भी काम न चला तो घर में चॉक बनाने का कारखाना लगाया। माँ भी रात-दिन स्वेटर बुन घर का सारा भार उठाने लगी। मुझे माँ स्वेटर की मशीन का एक पुर्ज़ा सी लगती थी। कैसे सब होगा कुछ मालूम नही था। लेकिन सब कुछ हुआ। मेरे माता-पिता की मेहनत और हम सबका विश्वास आखिर रंग लाया।
मेरे पिता की हिंदी और अंग्रेजी भाषा बहुत अच्छी थी। उन्होनें अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की थी। मेरी माँ संस्कृत और हिंदी बहुत अच्छी पढ़ाती थी। मेरी दादी किसी स्कूल में प्राधानाचार्या रह चुकी थी। उनके मार्गदर्शन में हमने एक छोटा सा स्कूल खोला। जिसमें बच्चों को पढ़ाया जाने लगा।
बहुत मुश्किल होता है किसी हादसे के बाद यूँ उठकर चल देना। लेकिन आज भी याद है मुझको हर वो कसम जो मेरे परिवार ने खाई थी साथ निभाने की। वो खूबसूरत पल जब मेरे पिता बासी रोटी को चूर कर गुड़ से लपेट कर बनाते थे दो लड्डू जिसे मै और मेरा भाई बड़े चाव से खाया करते थे। मुझे याद है माँ की साड़ी से बनी फ़्राक जिसमे बहुत सी झालर थी। जिसे देख कर मेरी बहुत सी सहेलियां पूछती थी क्या अपनी माँ से हमारे लिये बनवा दोगी।
मुझे याद है मेरी टूटी-फ़ूटी कविताओं पर पिता का वाह कहना। और माँ का मुस्कुराना।
पहली बार माँ ने एक गीत सिखाया था मुझे...चलो चले माँ बादलों के पार चलें फूलों की छाँव में...मेरी माँ गाती बहुत थी कोयल की तरह लेकिन अब कभी-कभी शादी या विशेष प्रयोजन पर। कोयल भी तो आम के मौसम में ही कुहुकती है।
मेरी कवितायें मेरी कहानियाँ सब मेरे पिता की बदौलत हैं। उनका विश्वास था मै लिखूंगी एक न एक दिन इससे भी बेहतर लिखूंगी। मै जब भी रेडियो सुनती उसकी नकल करती। जब बड़ी हुई अशोक चक्रधर और न जाने कितने कवियों को देख तमन्ना जागी मंच पर कविता सुनाने की। मेरे पिता को हॉस्य कवितायें बहुत पसंद हैं। । मेरी हर ख्वाहिश पर वो कहते थे...कोशिश करने वालों की हार नही होती... और मै पूरे जोश के साथ लग जाती थी कुछ नया करने। मुझे रंगों से खेलने का बहुत शौक था मगर पिता देख नही पाते थे। हाँ! मेरे कहने पर हाथ से छूकर कहते शाबाश।और मै चश्में के नीचे से चुपके से देखती थी पिता की आँखें।एक बात तो है कभी किसी ने उनकी आँखों में आँसू नही देखे। काले चश्मे के पीछे घूमती आँखे बस मै देख पाती थी।
यही सच है मेरी हर तमन्ना उन्हें मालूम थी मेरी आँखों से वे दुनिया देख पाते थे।आज मंच रेडियों टीवी अखबार पत्रिकायें सब हो चुका... मगर मेरे पिता की आँखें आज भी मेरे साथ चलती हैं। मै जानती हूँ वो आँखें न होकर भी मुझे देख पाये हैं। आज उन्हे आँखें खो देने का कोई मलाल भी नही है...
रुला तो नही दिया कहीं आपको? आप भी कहेंगे शानू जी क्या-क्या लिख देती हैं। मगर क्या किया जाये सच भी तो करेले सा कड़वा होता है न।
इति
सुनीता शानू
मै अपने माता-पिता, भाई बहनों के साथ एक खूबसूरत शहर पिलानी में रहती थी। अब इसे शहर कहें या कस्बा पिलानी जो पहले दलेल गढ़ के नाम से जानी जाती थी। सचमुच मेरी जन्म भूमि भी मेरी माँ की तरह बहुत खूबसूरत लगती है।
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मेरे पिता श्री रमाकांत पांडॆ |
मेरे पिता एक बहुत ही सुलझे हुए संवेदनशील व्यक्तित्व के इंसान हैं। वो मुझे चालीस साल से जानते हैं लेकिन मै उन्हें तब से जानती हूँ जब मै चार साल की थी। इसके पूर्व का मुझे याद नही। मुझे याद है जब मेरे पिता देख सकते थे। मेरा हाथ पकड़ कनॉट प्लेस मोती हलवाई की दुकान पर जाते थे जहाँ मुझे रसमलाई खाने को मिलती थी। समोसे से मुह जल जाने का डर था वो बस माँ और बहन के लिये पैक करवा कर लाया जाता था। बस वही कुछ साल याद हैं जब पिता मेरा हाथ पकड़ मुझे ले जाते थे। और मै उछलती-कूदती उनके साथ तितली सी उड़ती चलती जाती थी।
एक दिन ऎसा भी आया जब एक हादसे में मेरे पिता की दोनो आँखें चली गई। साथ ही चली गई मेरी माँ की वो खूबसूरती जो हम हर पल पिता की आँखों में देखा करते थे। तितली सी अब मै उड़ना भी भूल गई थी। कितना मुश्किल था वो समय अब मुझे उबड़-खाबड़ रास्तों से सम्भाल कर पिता को मोती हलवाई के ले जाना पड़ता था। वो पिता का पुराना दोस्त था समोसा कुछ सस्ता हो गया था लेकिन अब मुझे रसमलाई पसंद नही थी। रमेशपान वाला भी बहुत अच्छा पान बनाता था। एक छोटा सा गुलकंद वाला पान मुझे भी मिलता था। अब भी मै चलती थी पिता के साथ कनॉट प्लेस मगर उड़ नही पाती थी। मुझे लगता था मै बहुत बड़ी हो गई हूँ।
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मेरे पिता चॉक बनाते हुए |
ऎसे हालात में पिता ने हार नही मानी माऊँट आबू से पढ़ाई कर ब्लाईंड बच्चों को ब्रेल लिपि सिखाने का काम शुरू किया। जब उससे भी काम न चला तो घर में चॉक बनाने का कारखाना लगाया। माँ भी रात-दिन स्वेटर बुन घर का सारा भार उठाने लगी। मुझे माँ स्वेटर की मशीन का एक पुर्ज़ा सी लगती थी। कैसे सब होगा कुछ मालूम नही था। लेकिन सब कुछ हुआ। मेरे माता-पिता की मेहनत और हम सबका विश्वास आखिर रंग लाया।
मेरे पिता की हिंदी और अंग्रेजी भाषा बहुत अच्छी थी। उन्होनें अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की थी। मेरी माँ संस्कृत और हिंदी बहुत अच्छी पढ़ाती थी। मेरी दादी किसी स्कूल में प्राधानाचार्या रह चुकी थी। उनके मार्गदर्शन में हमने एक छोटा सा स्कूल खोला। जिसमें बच्चों को पढ़ाया जाने लगा।
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बांसुरी पर भजन बहुत अच्छे सुनाते है मेरे पिता |
बहुत मुश्किल होता है किसी हादसे के बाद यूँ उठकर चल देना। लेकिन आज भी याद है मुझको हर वो कसम जो मेरे परिवार ने खाई थी साथ निभाने की। वो खूबसूरत पल जब मेरे पिता बासी रोटी को चूर कर गुड़ से लपेट कर बनाते थे दो लड्डू जिसे मै और मेरा भाई बड़े चाव से खाया करते थे। मुझे याद है माँ की साड़ी से बनी फ़्राक जिसमे बहुत सी झालर थी। जिसे देख कर मेरी बहुत सी सहेलियां पूछती थी क्या अपनी माँ से हमारे लिये बनवा दोगी।
मेरी माँ श्रीमति संतोष जिन्हें प्यार से दादी लॉर्ड मिंटो कहती थी |
मुझे याद है मेरी टूटी-फ़ूटी कविताओं पर पिता का वाह कहना। और माँ का मुस्कुराना।
पहली बार माँ ने एक गीत सिखाया था मुझे...चलो चले माँ बादलों के पार चलें फूलों की छाँव में...मेरी माँ गाती बहुत थी कोयल की तरह लेकिन अब कभी-कभी शादी या विशेष प्रयोजन पर। कोयल भी तो आम के मौसम में ही कुहुकती है।
मेरी कवितायें मेरी कहानियाँ सब मेरे पिता की बदौलत हैं। उनका विश्वास था मै लिखूंगी एक न एक दिन इससे भी बेहतर लिखूंगी। मै जब भी रेडियो सुनती उसकी नकल करती। जब बड़ी हुई अशोक चक्रधर और न जाने कितने कवियों को देख तमन्ना जागी मंच पर कविता सुनाने की। मेरे पिता को हॉस्य कवितायें बहुत पसंद हैं। । मेरी हर ख्वाहिश पर वो कहते थे...कोशिश करने वालों की हार नही होती... और मै पूरे जोश के साथ लग जाती थी कुछ नया करने। मुझे रंगों से खेलने का बहुत शौक था मगर पिता देख नही पाते थे। हाँ! मेरे कहने पर हाथ से छूकर कहते शाबाश।और मै चश्में के नीचे से चुपके से देखती थी पिता की आँखें।एक बात तो है कभी किसी ने उनकी आँखों में आँसू नही देखे। काले चश्मे के पीछे घूमती आँखे बस मै देख पाती थी।
यही सच है मेरी हर तमन्ना उन्हें मालूम थी मेरी आँखों से वे दुनिया देख पाते थे।आज मंच रेडियों टीवी अखबार पत्रिकायें सब हो चुका... मगर मेरे पिता की आँखें आज भी मेरे साथ चलती हैं। मै जानती हूँ वो आँखें न होकर भी मुझे देख पाये हैं। आज उन्हे आँखें खो देने का कोई मलाल भी नही है...
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मेरे माता-पिता |
रुला तो नही दिया कहीं आपको? आप भी कहेंगे शानू जी क्या-क्या लिख देती हैं। मगर क्या किया जाये सच भी तो करेले सा कड़वा होता है न।
इति
सुनीता शानू
्संघर्ष का दूसरा नाम ही तो जीवन है सुनीता जी।
ReplyDeleteशुक्रिया वंदना जी।
Deleteबहुत ही मार्मिक चित्रण... आपके जीवन चित्रण को पढ़ कर वास्तविकता में भावुक हो गया , आपको अपनी नम आंखें तो नहीं दिखा सकता परंतु शब्दों के माध्यम से अपनी भावनाएं अवश्य व्यक्त कर सकता हूं । आपके पिताजी वास्तव में वीर एवं धैर्यवान हैं । आपकी जीवन कथा बहुत प्रेरणास्पद है ... ईश्वर आप सभी को सुखी रखे एवं आपको सफलता के सर्वोच्च शिखर पर स्थापित करे...
Deleteबहुत शुक्रिया सुनील जी...
Deleteऐसे संघर्ष शील माता - पिता की संतान हैं ....तभी आपकी हंसी के पीछे का दर्द दिखाई नहीं देता ... भावुक करती पोस्ट .... अंतिम पंक्तियों के बाद आँखें पोंछ लीं ......
ReplyDeleteआपने पढ़ा। लिखना सार्थक हो गया। बहुत दिन से आपसे बात भी नही हुई थी। कहाँ गई थी आप?
Deleteप्रणाम।
सुनीता दी ....आपकी पोस्ट ...सिर्फ पोस्ट नहीं होती ...वो जिंदगी होती हैं ..एक संघर्ष जो बीता ...वही लिखा रहता हैं ......ये सब पढ़ने के बाद ....मुझे खूब बचपन के कुछ अनछुए पहलू याद आ गए ...जो मैं आज तक किसी के साथ साँझा नहीं कर पाई थी ...सच में बहुत भावुक कर दिया आपकी लेखनी ने ...
ReplyDeleteशुक्रिया अंजू जी।
Deleteआप तप कर निकली हैं- भरे मन से ,पूरे परिवार को प्रणाम करती हूँ !
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतिभा जी।
Deleteसादर
कुछ भी कहना- इस पोस्ट की महत्ता को कम करना है. अम्मा बाबू जी को नमन!!
ReplyDeleteबहुत दिनों से मन में उथल-पुथल थी। पिता जी सीढ़ी से गिर गये थे। मै मिलने गई। अब ठीक हैं लेकिन मन वापिस लौटकर भी वहीं भटकता रहता है उनके आस-पास। इसीलिये लिख डाला जो दिल ने कहा। आप आये अच्छा लगा।
Delete७० वर्ष की इस आयु में बहुत कुछ देखा समझा है. सचमुच ही आपने हमें रुला दिया. हर पिता को आप जैसी बेटी मिले.आप सदा सुखी रहें. मम्मी पापा को प्रणाम.
ReplyDeleteनमस्कार। हर जनम में मुझे यही पिता मिलें।
Deleteमेरे पिता की आँखें आज भी मेरे साथ चलती हैं।'
ReplyDeleteभावुक कर दिया आपने तो.
धन्यवाद एम वर्मा जी।
Deleteआपकी पोस्ट पढ़ने के बाद मन प्यार की गहराई में डूब गया . प्यार , जो माँबाप का अपनी औलाद के लिए है . प्यार , जो औलाद के दिल में अपने माँ बाप के लिए है. दिल ज़िन्दा है तो आँखें हज़ार . प्यार को निसार करने के लिए भी कोई तो चाहिए ही. कभी कभी हादसे ग़रीब बना देते हैं लेकिन रिश्तों की दौलत से मालामाल भी करते हैं.
ReplyDeleteमेरा सलाम अपने माता पिता जी को पहुंचा दीजियेगा .
मालिक आप सबको अपनी पसंद की राह चलाये और जन्नत की दुनिया में आप सबको हमारे साथ जमा कर दे. जहां फिर कभी बिछुड़ना न होगा .
मौत की आग़ोश में जब थक के सो जाती है माँ
तब कहीं जाकर ‘रज़ा‘ थोड़ा सुकूं पाती है माँ
फ़िक्र में बच्चे की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ
नौजवाँ होते हुए बूढ़ी नज़र आती है माँ
रूह के रिश्तों की गहराईयाँ तो देखिए
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ
हड्डियों का रस पिला कर अपने दिल के चैन को
कितनी ही रातों में ख़ाली पेट सो जाती है माँ
जाने कितनी बर्फ़ सी रातों में ऐसा भी हुआ
बच्चा तो छाती पे है गीले में सो जाती है माँ
http://pyarimaan.blogspot.in/2011/02/mother.html
अनवर भाई अच्छा लगा आप आये। धन्यवाद।
Deleteदी.. आज आपने रुला दिया... और सिर्फ रुला दिया... मैं सब कुछ फील कर रहा हूँ... दी... कैसे बताऊँ... अपने दिल का हाल.... माय दी इज़ ग्रेट.. आई ऍम प्राउड ऑफ़ यू.. दी..
ReplyDeleteमहफ़ूज़ तुमने पढ़ा ही नही एक पोस्ट भी लिख डाली। शुक्रिया नही कहूंगी भाई। लेकिन हाँ अच्छा लगा।
Deleteरुला ही दिया..... मन को छू गयी अपनों की बातें
ReplyDeleteशुक्रिया मोनिका जी।
Delete...कोशिश करने वालों की हार नही होती....
ReplyDeleteजिन्होंने आपके दिल दिमाग में इन शब्दों को गुंजाया है,
उनकी हिम्मत,हौंसले और जज्बे को मेरा शत शत नमन.
आपने हमें रुलाया नहीं बल्कि याद दिलाया है कि
हमेशा कोशिश करते रहना चाहिए अपने लक्ष्य की ओर
बढ़ते रहने की भले ही मार्ग में कितनी भी कठिनाईयाँ आयें..
आपका इक अलग ही रूप और अंदाज देखा आज,शानू जी
मेरा सर आपके पिता श्री,माता श्री और आपके
समक्ष श्रद्धा से नतमस्तक है.
एक अति भावमयी,हृदयस्पर्शी और प्रेरणापूर्ण प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत हार्दिक आभार जी.
शुक्रिया राकेश जी इससे अधिक कुछ नही लिख पाऊँगी।
Deleteबात रुलाने की नहीं,'सीख' की है कि किस प्रकार संघर्षों को काबू किया गया और बाधाओं को पछाड़ते हुये अपना लक्ष्य प्राप्त किया गया। शिक्षा-प्रद आलेख है।
ReplyDeleteजीवन के अनुभवों को दूसरों के सामने रख कर कर्तव्य -पथ पर डटे रहने की प्रेरणा आपने दी यह अच्छा प्रयास है। मैं तो पहले से ही 'विद्रोही स्व-स्वर मे'के माध्यम से अपने अनुभवों को सार्वजनिक करता आ रहा था। द्वारा इस क्षेत्र मे पदार्पण का हार्दिक स्वागत है।
आपके माता जी-पिताजी के कुशल स्वास्थ्य एवं उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हैं।
जी हाँ आप सही कह रहें हैं विजय जी। बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
Deleteआपके द्वारा -पढ़ें।
ReplyDeleteह्रदयस्पर्शी प्रस्तुति |
ReplyDeleteशुक्रिया मासूम जी।
Deleteअम्मा और बाबू जी को मेरा नमन कहिएगा दी ... प्रणाम !
ReplyDeleteशुक्रिया शिवम। अम्मा बाबू जी का आशीर्वाद तो सदैव हमारे साथ ही रहता है।
Deleteडॉक्टर्स रोया तो नहीं करते . लेकिन आपके माता पिता के बारे में जानकर यही महसूस हुआ की सुन्दर मुस्कान के पीछे अक्सर गहरा दर्द छुपा रहता है . उस दर्द को महसूस कर रहा हूँ . आपके ज़ज्बे को सलाम .
ReplyDeleteशुक्रिया डॉक्टर साहब। कौन कहता है डॉक्टर्स रोया नही करते। डॉक्टर्स तो सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं तभी तो बीमार की शक्ल देख कर ही हाल जान लेते हैं। धन्यवाद आपका।
Deleteमाँ और पिताजी को सादर नमन। बहुत सुन्दर पोस्ट।
ReplyDeleteधन्यवाद दिव्या जी।
Deleteबहुत संवेदनशील पोस्ट निशब्द कर दिया ........
ReplyDeleteधन्यवाद सुनील जी।
Deleteबहुत ही टची। दर्द के बाद भी कायम रहे इस जज्बे को सलाम।
ReplyDeleteशुक्रिया संजीत जी।
Deleteआपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है साप्ताहिक महाबुलेटिन ,101 लिंक एक्सप्रेस के लिए , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक , यही उद्देश्य है हमारा , उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें
ReplyDeleteह्म्म मुझे मालूम था तुम यहीं कहीं हो आस-पास। इससे बड़ी खुशी की बात क्या होगी कि छोटा भाई हमेशा मेरे साथ ही है।
Deleteकभी ताक पर रखी हुई इक गठरी खुल जाती है
ReplyDeleteतो बीते दिन चित्र बने नयनों में आ जाते हैं
जीवल की हर दिशा गठित होती हौ उन्हीं पलों में
जिनमें बचपन आशीषों से कुन्दन बन जाते हैं
आपके आशीर्वचन ही साथ मेरे चल रहे हैं। भाई-पिता के रूप में आपका स्नेह हमेशा मेरे साथ चलता है। ज्यादा कुछ लिख नही पा रही हूँ। इतनी व्यस्तता में आपना आना ही बहुत बड़ी बात है।
Deleteआलेख बाँच कर मुझे वो रात याद आ गई जब पिलानी के कवि-सम्मेलन में माताजी और बाबूजी से भेन्ट हुई थी . वे इस आयु में भी मौसम की सबसे सर्द रात में घण्टों तक उपस्थित रहे और अपनी प्यारी बिटिया की कवितायें सुन कर मन ही मन प्रसन्न भी होते रहे और आशीर्वाद भी देते रहे.
ReplyDeleteसुनीताजी, माँ बाप तो माँ बाप होते हैं, सभी के माँ -बाप महान होते हैं परन्तु आप खुशनसीब हैं कि आपको ऐसे माँ-बाप मिले जिनके प्रति श्रद्धावनत रहने का मन करता है . जिनकी भीतर की आंखें खुल जाती हैं वे लोग बाहर की आँखों के बिना भी सहज जीवन जी लेते हैं.....इस बात का मजबूत उदाहरण आपके पिताश्री हैं .
नमन करता हूँ उन्हें भी और आपको भी.........
मेरी एक ग़ज़ल का एक शेर आपके नाम करता हूँ :
बाप से बढ़ कर कौन सखा है दुनिया में
माँ से बढ़ कर कौन सखी है बाबाजी
___बधाई इस अनुपम आलेख के लिए
याद है न मैने एक दिन कहा था। वो तो है अलबेला आप वहीं हैं। माँ बाबूजी भी आपको कई बार याद कर चुके हैं। आपकी पंक्तियां उन तक पहुंचा दी गई है।
Deleteधन्यवाद।
बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति ... पिता का आशीर्वाद तो हमेशा साथ होता है ... आभार
ReplyDeleteधन्यवाद महेंद्र जी।
Deleteबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति ... पिता का आशीर्वाद तो हमेशा साथ होता है ... आभार
ReplyDeleteभावपूर्ण अभिव्यक्ति... आपका यह संस्मरण अपने आप में एक प्रेरणा स्त्रोत से कम नहीं, फिलहाल डॉ दरलाल की बात से सहमत हूँ।
ReplyDeleteधन्यवाद पल्लवी जी।
Deleteसुनीता जी !!! ..........परसों से यह लिंक ३ बार खोल के बंद कर चुकी हूँ. तस्वीर देखकर समझ गई थी कि पोस्ट पिताजी पर है, पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हुई. जानती थी कि कुछ पंक्तियों से ज्यादा नहीं पढ़ पाउंगी. ऐसी पोस्ट मैं पढ़ ही नहीं पाती हूँ.अपनी भी नहीं.
ReplyDeleteफिर आज आपने कहा तो टाल नहीं पाई और किसी तरह पढ़ गई ..पर अब कुछ कहना संभव नहीं लग रहा है.
बस नमन है आपकी, आपके परिवार की और पिताजी की जिजीविषा को.
सहज सरल ह्रदयस्पर्शी प्रस्तुति
ReplyDeleteधन्यवाद पाबला जी।
Deleteआपके ब्लॉग पर लगा हमारीवाणी क्लिक कोड ठीक नहीं है और इसके कारण हमारीवाणी लोगो पर क्लिक करने से आपकी पोस्ट हमारीवाणी पर प्रकाशित नहीं हो पाएगी. कृपया लोगिन करके सही कोड प्राप्त करें और इस कोड की जगह लगा लें. क्लिक कोड पर अधिक जानकारी के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करें.
ReplyDeletehttp://www.hamarivani.com/news_details.php?news=41
टीम हमारीवाणी
आपकी इस पोस्ट को पहले महफूज़ जी के ब्लॉग पर पढ़ा था ... मन भावुक हो गया था इस भावमय करती पोस्ट पर .. अभी एक बार फिर पढ़कर नि:शब्द हूँ आपकी इस प्रस्तुति पर मां-पिताजी को सादर नमन आपके लिए शुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति, पूरे जीवन को शब्दों में पिरो दिया | मन को छू गयी अपनों की बातें
ReplyDeleteसमस्त परिवार को तुम पे गर्व महसूस हो रहा है ।
बहुत ही सुंदर लिखा। 💐💐💐💐
ReplyDeleteदिल से निकले उदगार हमेशा मन के हर कोने को छू जाते हैं।
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